देश का उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर हिंसा की आग में सुलग रहा है. सशस्त्र भीड़ गांवों पर हमला कर रही है, घरों में आग लगाई जा रही है, दुकानों में तोड़फोड़ की जा रही है. हालात यहां इतने खराब हो गए कि 8 जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गया. 5 दिनों के लिए मोबाइल इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई.
बुधवार (3 मई) चुराचांदपुर जिले के तोरबंग इलाके में ‘ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर’ (एटीएसयूएम) ने ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ के दौरान यहां हिंसा भड़क उठी थी. गुरुवार 4 मई को हालात काबू से बाहर हो गए तो राज्य सरकार ने बेहद गंभीर स्थिति होने पर देखते ही गोली मारने का आदेश जारी किया।
राज्यपाल की ओर से जारी आदेश में कहा गया है कि ‘‘समझाने और चेतावनी के बावजूद स्थिति काबू में नहीं आने पर ‘देखते ही गोली मारने’की कार्रवाई की जा सकती है. ये अधिसूचना दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों के तहत राज्य सरकार के गृह आयुक्त के हस्ताक्षर से जारी की गई.
हिंसा की वजह से अब तक 9000 लोग विस्थापित होने को मजबूर हुए. भारतीय सेना के 55 टुकड़ियां को क्षेत्र में तैनात किया गया है तो इसके साथ ही अन्य 14 को स्टैंडबाय पर रखा गया है. मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने लोगों से शांति बनाए रखने का आग्रह किया, वहीं अधिकारियों ने राज्य के मोरेह और कांगपोकपी में स्थिति को काबू में कर लिया है
वे अब राजधानी इंफाल और चुराचांदपुर में हालातों को सामान्य करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं. हालांकि, अभी भी राज्य सरकार ये बताने की हालत में नहीं है कि हिंसा में कितने लोग मारे गए और कितने घायल हैं. दरअसल यहां ये सब एक पल में नहीं हुआ. इसका बैकग्राउंड इस साल फरवरी में ही बनना शुरू हो गया था.
बाकी कसर मणिपुर हाई कोर्ट के राज्य सरकार के लिए जारी निर्देशों ने पूरी कर दी. इसके बाद ये पूरा राज्य हिंसा की चपेट में आ गया. ये हिंसा नगा, कुकी और मैतेई के समुदायों के बीच हुई. इन समुदायों के बीच इस पूरे विवाद को समझने के लिए यहां की जातीय और भौगोलिक संरचना नजर डालना भी जरूरी हो जाता है.
क्या है यहां की जियोग्राफी ?
मैतेई, नगा, कुकी आबादी का विवाद समझने से पहले इस राज्य की भौगोलिक संरचना से रूबरू होना जरूरी है. देखा जाए तो झगड़े की असली जड़ यही है. दरअसल इस राज्य का आकार फुटबॉल के स्टेडियम जैसा है.
इसमें इंफाल घाटी प्लेफील्ड जैसे बिल्कुल बीच में है. इसके चारों तरफ पहाड़ी इलाके गैलरी जैसे हैं. मणिपुर की लाइफ लाइन कहे जाने वाले दो हाईवे इस राज्य को दुनिया के बाकी हिस्सों से जोड़ते हैं।
मैतेई, नगा, कुकी आबादी का गणित
मैतेई मणिपुर का सबसे बड़ा समुदाय है. राजधानी इंफाल में इनकी अच्छी खासी संख्या है. ये आमतौर पर मणिपुरी कहलाते हैं. 2011 की आखिरी जनगणना के मुताबिक, ये लोग राज्य की आबादी का 64.6 फीसदी हैं, लेकिन मणिपुर के लगभग 10 फीसदी भूभाग पर ही ये रहते हैं. अधिकतर मैतेई हिंदू हैं और 8 फीसद मुस्लिम हैं.
मैतेई बहुसंख्यक समुदाय होने के अलावा इनका मणिपुर विधानसभा में अधिक प्रतिनिधित्व भी है. ऐसा इसलिए है ,क्योंकि राज्य की 60 विधानसभा सीटों में से 40 इंफाल घाटी क्षेत्र से हैं. ये वो इलका है जो ज्यादातर मैतेई लोगों ने बसाया है.
दूसरी तरफ, राज्य की आबादी में नगा और कुकी आदिवासी भी हैं, जिनकी आबादी लगभग 40 फीसदी है, लेकिन वे मणिपुर की 90 फीसदी जमीन पर आबाद हैं. इस तरह से इस पहाड़ी भौगोलिक क्षेत्र की 90 फीसदी जमीन पर राज्य की 35 फीसदी मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं, लेकिन इस क्षेत्र से केवल 20 विधायक ही विधानसभा जाते हैं.
जिन 33 समुदायों को जनजाति का दर्जा है. वो नगा और कुकी-जोमिस जनजाति के हैं और मुख्य तौर से ईसाई हैं. साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, मणिपुर में हिंदुओं और ईसाइयों की लगभग बराबर आबादी है. मतलब इन दोनों की ही आबादी लगभग 41 फीसदी है. बस मसला यही है.
क्या कहता है मैतेई समुदाय?
आज तक, नागा और कुकी-ज़ोमी जनजातियों की 34 उप-जनजातियां सरकार की अनुसूचित जनजातियों की सूची में हैं, लेकिन मैइती नहीं हैं. हालांकि, अनुसूचित जनजाति मांग समिति, मणिपुर के माध्यम से यह समुदाय दशकों से एसटी दर्जे की मांग कर रहा है.
उनका तर्क है कि 1949 में भारत में विलय से पहले उन्हें मणिपुर की जनजातियों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, लेकिन जब संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 का मसौदा तैयार किया गया था, तब उन्होंने यह टैग खो दिया था. यह दावा करते हुए कि उन्हें एसटी सूची से बाहर कर दिया गया था, वे अपनी मांगों पर अड़े रहे.
हालांकि, उनकी मांग का राज्य के मौजूदा 36 एसटी समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले आदिवासी छात्र संघों ने कड़ा विरोध किया है, जिन्होंने तर्क दिया है कि मैइती एसटी का दर्जा देने से आरक्षण के माध्यम से आदिवासी समुदायों की रक्षा करने का मकसद नाकाम हो जाएगा।
मैइती समुदाय के संगठनों का कहना है कि एसटी दर्जे की मांग उनके अस्तित्व और बाहरी लोगों की आमद से सुरक्षा के लिए जायज है, खासकर म्यांमार से. उनका कहना है कि एसटी टैग से उन्हें आदिवासी लोगों की तरह पहाड़ियों में जमीन हासिल करने में मदद मिलेगी, जिनके “अनारक्षित” इंफाल घाटी में जमीन खरीदने पर कोई प्रतिबंध नहीं है. मैइती समुदाय की नाराजगी है कि उनके रहने की जगह इंफाल घाटी में आदिवासी जमीन खरीद रहे हैं, लेकिन उनके पहाड़ों में ऐसा करने की मनाही है.
मैतेई समुदाय पहुंचा अदालत
मणिपुर हाई कोर्ट के समक्ष एक याचिका में इसकी मांग करते हुए, मैतेई (मीतेई) जनजाति संघ ने तर्क दिया कि वे 1949 में भारत संघ के साथ मणिपुर की रियासत के विलय से पहले एक मान्यता प्राप्त जनजाति थे, लेकिन विलय के बाद उनकी ये पहचान खो गई.
उन्होंने अदालत में तर्क दिया है कि एसटी दर्जे की मांग नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और कर राहत में आरक्षण से परे है और ये समुदाय को “संरक्षित” करने की जरूरत तक फैली हुई है. इसके साथ ही ये मैतेई समुदाय की पैतृक भूमि, परंपरा, संस्कृति और भाषा को बचाने की जरूरत के लिए है.
दरअसल इस मामले की सुनवाई करते हुए 19 अप्रैल को मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश जारी किया कि वो चार हफ्ते के भीतर मैतेई समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने के अनुरोध पर विचार करे और 29 मई तक केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय को एसटी सूची में मैतेई लोगों को शामिल करने की सिफारिश भेजे.
मैतेई जनजाति संघ के सदस्यों की दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए, मणिपुर हाईकोर्ट की कार्यवाहक चीफ जस्टिस एम.वी. मुरलीधरन की सिंगल-जज बेंच ने पाया कि मैतेई समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने के प्रतिनिधित्व पर शीघ्रता से विचार करने के लिए राज्य सरकार को निर्देश देना उचित था.
हाईकोर्ट ने देखा कि राज्य सरकार और केंद्र सरकार को लगातार मांगों और याद दिलाने के लिए लिखे गए पत्रों के बाद, केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 2013 में मणिपुर सरकार को एक पत्र भेजा था, जिसमें सरकार को मैतेई समुदाय के एसटी सूची में शामिल करने अनुरोध की तरफ इशारा किया गया था. इस पत्र में मणिपुर की सरकार से सामाजिक और आर्थिक सर्वे के साथ जातीय रिपोर्ट के लिए कहा गया था.
जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने कहा था कि, एसटी सूची में शामिल करने के लिए स्वीकृत तौर-तरीकों के अनुसार, प्रस्ताव राज्य सरकार की तरफ से भेजा जाना चाहिए. हालांकि, तब से, राज्य सरकार ने एसटी सूची में समुदाय को शामिल करने की संभावना पर केंद्र सरकार को कोई फ़ाइल नहीं भेजी थी.
इसी कड़ी में मणिपुर हाईकोर्ट ने बुधवार 3 मई को पहाड़ी क्षेत्र समिति (विधानसभा निकाय) के अध्यक्ष और एटीएसयूएम अध्यक्ष को एक फैसले के खिलाफ लोगों को भड़काने और आलोचना करने के लिए नोटिस जारी किया. अदालत ने मीडिया, संगठनों, नागरिक समाज समूहों और आम लोगों से ऐसी गतिविधियों को नहीं करने के लिए कहा जो अदालत की गरिमा को कम कर सकती हैं.
पहाड़ी क्षेत्र समिति के अध्यक्ष, डिंगांगलुंग गंगमेई ने कथित तौर पर अदालत के आदेश के खिलाफ एक बयान प्रसारित किया था और इस बात पर नाराजगी जताई थी कि समिति जो एक संवैधानिक निकाय है को न तो मामले में एक पक्ष बनाया गया था और न ही परामर्श किया गया था।
क्यों है आदिवासियों को मैतेई समुदाय की मांग से एतराज ?
मैतेई लोगों के अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग को हमेशा कुकी और नगाओं जनजातियों के विरोध का सामना करना पड़ा है. उनका तर्क है कि मैतेई राज्य में प्रमुख आबादी है और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में भी उसका प्रभुत्व है.
वे आगे तर्क देते हैं कि मैतेई लोगों की मणिपुर भाषा पहले से ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है. इसके साथ ही मैइती समुदाय का वो वर्ग जो मुख्य तौर से हिंदू हैं पहले से ही अनुसूचित जाति (एससी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के तहत वर्गीकृत है. इस तरह से इस स्टेट्स से जुड़े सभी अवसरों तक उनकी पहुंच है.
जेएनयू के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ लॉ एंड गवर्नेंस के सहायक प्रोफेसर थोंगखोलाल हाओकिप ने अपने पेपर द पॉलिटिक्स ऑफ शेड्यूल्ड ट्राइब स्टेटस इन मणिपुर में लिखा है, “यह दावा कि मैतेई को अपनी संस्कृति और पहचान की रक्षा के लिए एसटी का दर्जा चाहिए, आत्मघाती है. ये राज्य और उसके तंत्र को नियंत्रित करने वाला एक प्रमुख समूह है. राज्य उनके सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा करता रहा है. ऐसे में उनकी संस्कृति और पहचान किसी भी तरह से खतरे में नहीं है.”
इस विचार को राजनीतिक विज्ञानी खाम खान सुआन हौसिंग ने भी साझा किया है. द स्क्रॉल की एक रिपोर्ट में, उन्होंने कहा है, “यदि मैतेई एसटी सूची में खुद को शामिल करने में कामयाब होते हैं, तो यकीनन वे मान्यता के चार अहम श्रेणियों एसटी , एससी, ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के साथ सुरक्षात्मक भेदभाव के सभी फायदों को हासिल करने वाले भारत में इकलौता समुदाय बन जाएंगे.”
ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर (ATSUM) एक प्रभावशाली आदिवासी निकाय है, जिसने 19 अप्रैल के हाई कोर्ट के आदेश को ‘ब्लैक लेटर डे’ कहा और इस फैसले को ” पहले से पक्ष में लिया फैसला ” कहा, जिसने केवल याचिकाकर्ताओं के फायदों को सुना।
3 मई को क्यों भड़की मणिपुर में हिंसा ?
मणिपुर में तनाव के हालात इस साल फरवरी से ही बनने शुरू हो गए थे. जब बीजेपी की अगुवाई वाली राज्य सरकार ने यहां फरवरी में संरक्षित इलाकों से अतिक्रमण हटाना शुरू किया था. यहां के बाशिंदे सरकार के इस रवैये की मुखालफत कर रहे थे.
इसके बाद 3 मई मणिपुर हाई कोर्ट ने एक निर्देश दिया. इसमें कोर्ट ने सरकार को गैर-जनजाति मैतेई समुदाय को जनजाति में शामिल करने वाली 10 साल पुरानी सिफारिश को लागू करने के निर्देश दिए. बस बात यहीं से बिगड़ना शुरू हो गई.
हाईकोर्ट के इस फैसले से नाराज बुधवार (3 मई) चुराचांदपुर जिले के तोरबंग इलाके में ‘ऑल ट्राइबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर’ (एटीएसयूएम) ने ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’बुलाया था. यह टिपिंग पॉइंट था यानी यहां से बात बड़ी हुई और हिंसा तक जा पहुंची थी. इसके तुरंत बाद इलाके में हिंसा भड़क गई. नगा और कुकी आदिवासियों के इस मार्च में भड़की हिंसा ने एक ही रात में भयंकर रूप लिया.
ऑल मणिपुर ट्राइबल यूनियन के महासचिव केल्विन निहसियाल ने इंडिया टुडे को बताया कि मार्च खत्म होने के एक घंटे बाद, मैतेई लोगों का एक समूह बंदूकें लहराते हुए कुकी गांवों में घुस गया और उनके घरों में आग लगा दी. हालांकि, मैतेई समुदाय घटनाओं का अलग ब्यौरा देते हैं. इस समुदाय के सदस्यों में से एक ने कहा कि कुकी ही मैतेई गांवों में घुसे, घरों में आग लगा दी, उनकी संपत्तियों में तोड़-फोड़ की और उन्हें भगा दिया.
हिंसा भड़कने के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया है और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई हैं. हिंसा के बाद ओलंपिक पदक विजेता और बॉक्सिंग आइकन एमसी मैरी कॉम ने मदद की गुहार लगाई.उन्होंने ट्वीट किया, “मेरा राज्य मणिपुर जल रहा है, कृपया मदद करें.”
हिंसा का म्यांमार- बांग्लादेश कनेक्शन
भले ही मणिपुर में मैतेई समुदाय बहुसंख्यक हैं, लेकिन ये असुरक्षा का शिकार है. दरअसल उत्तर-पूर्वी भारत की 1643 किलोमीटर सीमा म्यांमार से लगती है. ये लोग म्यांमार और बांग्लादेश से आने वाले अवैध प्रवासियों के यहां बसने से खौफ में हैं.
इस समुदाय को खुद की सांस्कृतिक पहचान खतरे में लग रही है. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, म्यांमार से लगभग 52000 शरणार्थी देश के पूर्वोत्तर राज्यों में बसे हुए हैं. अकेले मणिपुर में ही 7800 शरणार्थी आबादी है.
ये आंकड़ा तो केवल उनका है जिन्हें आधिकारिक तौर पर शरणार्थी का दर्जा मिला हुआ है. इनके अलावा भी इस राज्य में बड़ी तादाद में म्यांमार और बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी रहते हैं. मैतेई संगठनों का दावा है कि बड़े पैमाने पर यहां बसे इन अवैध प्रवासियों’ की वजह से प्रदेश के लोगों को मुश्किलों से जूझना पड़ रहा है.
उधर दूसरी तरफ मणिपुर में सरकार समर्थक समूहों ने दावा किया है कि जनजाति समूह अपने फायदों के लिए मुख्यमंत्री नोंगथोंबन बीरेन सिंह को हुकूमत से हटाना चाहते हैं. इसकी वजह है कि उन्होंने राज्य में मादक पदार्थों के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी है. द हिंदू अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सीएम बिरेन सिंह की सरकार यहां अफीम की खेती को खत्म कर रही है.
पुलिस ने कहा कि चुराचांदपुर, चंदेल, कांगपोकपी और तेंगनौपाल जिलों में तनाव है यहां कुकी-जोमी लोग राज्य की बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार के नशा विरोधी अभियान के नाम पर बेदखली अभियान का विरोध कर रहे हैं.
ये अवैध प्रवासी मणिपुर के कुकी-जोमी जनजाति से हैं. कुकी-ज़ोमी लोगों पर म्यांमार से बड़े पैमाने पर अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने और पोस्ता (अफीम) की खेती करने के लिए राज्य के स्वामित्व वाली वनभूमि पर कब्जा करने का आरोप है. राज्य में पहला हिंसक प्रदर्शन 10 मार्च को कुकी गांव से अवैध प्रवासियों को निकालने के दौरान हुआ था.