संपादक की कलम से (कुर्मांचल टाइम्स)
भगवान शिव व पार्वती का हिमालय के अटूट संबंध है। हिमालय की तलहटी के लोक जीवन में शैव उपासना को अधिक महत्व दिया गया है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार तय कर्मकांड के अलावा लोक जीवन में शिव पार्वती की उपासना की खासी सरल परपंरा विद्यमान है। इसमें भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी व अष्टमी को सातू आठू पर्व मुख्य है। इसमें गौरा महेश की अनाज के पौधों से मूर्ति बना कर पूजने का विधान है। धान व अन्य अनाज के पौधे से मूर्ति का निर्माण किया जाता है। इन मूर्तियों का पूरा श्रृंगार करने के बाद पूजा की जाती है।
प्रतिवर्ष मनाए जाने वाला लोक पर्व भाद्रमास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि से शुरू होता है । इसे विरूड़ पंचमी कहते हैं। इस दिन घर से पूजा स्थल में सफाई करने के साथ ही पारंपरिक ऐपण यानि अल्पना देकर तैयारी की जाती है। इसके बाद पांच या सात अनाज मिला कर ताबें के बर्तन में पानी में भिगाए जाते हैं। ताबें के इस बर्तन में लाल वस्त्र की पोटली भी बनाई जाती है। कहीं एक तथा कहीं दो पोटली बनाने का विधान है। इस पोटली में अनाज के अलावा कच्ची हल्दी, पीली सरसौं, दाड़िम अथवा सुपारी के साथ पैंसे का एक सिक्का भी रखा जाता है।
डोर व दुब्ज्योड़ाः महिलाएं सप्तमी को व्रत कर डोर धारण करती हैं। इसमें गौरा महेश्वर की बनाई गई मूर्तियों को समक्ष पूरे शृंगार करने के बाद सामुहिक तौर पर पूजा करती हैं। विशेष तौर बने पीले रंग के तागे(डोर) की प्रतिष्ठा कर हाथ में धारण करते हैं। यह अखंड सौभाग्य के लिए किया जाने वाली परंपरागत पूजा है। अष्टमी को दुब्ज्योड़ा जोकि लाल रंग से बना तागा होता है। उसे पूजा अर्चना के बाद महिलाएं गले में धारण करती हैं।
इधर सप्तमी व अष्टमी को पूजा की कथा भी प्रचलित है। कहा जाता है कि सप्तमी को गौरा यानि पार्वती शिव से रूठ कर मायके उत्तराखंड आ जाती है दूसरे दिन अष्टमी को महेश यानि भगवान शंकर उन्हें लेने आते हैं। तब गौरा को भगवान शिव के साथ सामुहिक तौर विधि विधान से उनके साथ भेजा जाता है। जबकि एक कथा और कही जाती है। इसमें कहा जाता है कि पुराने समय में बीण भाट नाम का ब्राह्मण था। उसके सात बेटे थे। सातों की शादी हो चुकी थी लेकिन किसी को भी संतान का सुख नहीं मिला था। इसके चलते वह बहुत दुःखी रहता था। एक बार वह अपने यजमान के यहां से घर लौट रहा था। रास्ते में उसे एक नदी मिली। इसमें दाल के छिलके दिखाई दिए। नदी के किनारे कुछ महिलाएं बैठी थी। ब्राहण ने इस बारे में उनसे जानकारी ली। महिलाओं ने बताया कि वे अखंड सौभाग्य व संतान के लिए व्रत कर रही हैं। ब्राह्रमण ने इस व्रत का पूरा विधान बताने को कहा। महिलाओं ने उसे बताया कि अपनी सबसे बड़ी बहू से व्रत रख कर पांच या सात प्रकार के अनाज एक तांबे के बर्तन में भिगोने को कहना तथा इसके बाद गौरा व महेश की पूजा में इन भिगाये गए अनाज को भी अर्पित करना। लेकिन बताते हैं कि ब्राह्मण की बड़ी बहू ने व्रत के बीच एक अनाज का एक दाना मुंह में ले लिया। इसी क्रम में ब्राह्ममण की छः बहुओं से कोई न कोई गलती होती रही। अंत में सातवीं बहू से यह अनुष्ठान करवाने की तैयारी की गई। जोकि काफी सीधी थी परिवार वालों ने उसे जानवरों के साथ जंगल में भेजा था। उसे घर बुलाया गया। उसने यह व्रत पूरी विधि विधान से किया। उसने गौरा व महेश को विरूड़ यानि विभोये हुए अनाज के साथ ही दुर्बा भी अर्पण किया। इसके बाद समय बीतने पर उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ब्राह्मण खुश हो कर बच्चे के ग्रहों की जानकारी के लिए ज्योतिष के पास गया। ज्योतिषचार्य ने उसे बताया कि तुम्हारे यहां पैदा हुए बालक के ग्रह सबके लिए अच्छे नहीं हैं। वापस आकर उसने पत्नी को यह बात बताई। परिवार के लिए अपशकुनी होने के चलते बच्चे से छुटकारा पाने की योजना बनाई गई। इसके लिए बहू को माता पिता का स्वास्थ्य खराब होने का बहाना बनाकर मायके भेज दिया। लेकिन बेटी को बच्चे को छोड़ कर अकले आया देख उसके मांता पिता को आशंका हो गई। उन्होंने बेटी को तत्काल वापस भेज दिया। उसको सरसों के दाने देकर कहा कि इसको गिराते जाना ताकि ससुराल में उसका बच्चा सही सलामत रहे। ससुराल पहुंचने से पहले उसे प्यास लगी तो निकट ही नौला देख कर वहां प्यास बुझाने गई। पानी पीने झुकी तो नौले में डाले गए बच्चे ने उसके गले में पहने गए तागे( दुबज्योड़ा) पकड़ लिया। तब उसने देखा कि यह तो उसका ही बेटा है। तब से दुबज्योडा पहनने की भी परंपरा चली आ रही है। विरूड़ पंचमी को भिगोये गए अनाज को भी सप्तमी व अष्टमी को चढ़ाया जाता है तथा इसके प्रसाद के बाद ग्रहण किया जाता है। इस दौरान चलने वाली पूजा में भगवान से जनकल्याण की कामना की जाती है। अगली बार फिर आने की प्रार्थना के साथ गौरा( गवरा) महेश्वर( शिव) को अश्रुपूर्ण विदाई दी जाती है। पूजा में लगी महिलाओं के यह पल ल़ड़की की विदाई के समान बहुत भी भावुक करने वाला होता है।