उत्तर भारत का प्रमुख शक्तिपीठ है अलकनंदा नदी के पावन तट पर बना मां धारी देवी मंदिर

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आदि शक्ति जगत् जननी माता जगदंबा का विराट स्वरूप श्रीनगर से मात्र 13 किलोमीटर दूर अलकनंदा नदी के तट पर माँ धारी देवी का मंदिर है। जिसे शास्त्रों में ‘माँ श्मशान काली’ ‘महाकाली’, ‘दक्षिण काली’ आदि अनेक नामों से जाना जाता है। बद्रीनाथ, ‘केदार नाथ’ धाम की यात्रा’ करने से पहले यात्री मां धारी देवी का आशीर्वाद लेकर यात्रा की शुरुआत करते हैं। यहां भक्तों की जिज्ञासा व जानकारी के लिए मां धारी देवी के तीनों नामों के अर्थ को स्पष्ट किया जा रहा है।

श्मशान काली– ‘मां धारी देवी को श्मशान काली कहा जाता है। विद्वानों का मत है कि माँ श्मशान में निवास करती है। ‘श’ शब्द से शव और शान शब्द से शयन कहा जाता है। इस प्रकार जहां शव शयन करें ‘उस स्थान को मुनि जन और विद्वान श्मशान कहते हैं। जहां पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश का लय होता है और शव मुर्दा रूप हो जाय वह श्मशान होता है। भक्त अपने हृदय में माँ भगवती के निवास की इच्छा करता है तो उसे अपने हृदय को राग द्वेष आदि सम्पूर्ण विकारों से रहित बना देना चाहिए। मां भगवती की असीम कृपा प्राप्त करने के लिए अपने अन्दर की सम्पूर्ण बुराइयों को श्मशान बनाना पडता है। अर्थात समाप्त करना पडता है। तब जाकर मां भगवती अपनी कृपा बरसाती है।

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दक्षिण काली– जिस प्रकार कर्म की समाप्ति पर दक्षिण फल की सिद्धि देने वाली होती है ‘उसी प्रकार मां भगवती भी सभी फलों को सिद्धि देती है। मां काली का सामान्य उच्चारण करने मात्र से मुंह मांगा वर देती है। इसलिए मां भगवती को दक्षिण काली कहा जाता है। दक्षिण मूर्ति भैरव ने सर्वप्रथम मां काली की पूजा की थी। इसी कारण मां भगवती का नाम दक्षिण काली भी है।

‘महाकाली‘– एक मात्र मां काली ही इस तरह की शक्ति स्वरूपा है जिसने महाकाल पर भी विजय प्राप्त की है। मां काली की भक्ति करने से मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। इस मंदिर के सन्दर्भ में इस तरह की मान्यता है कि माँ प्रातः, दोपहर, सांय तीनों पहर में भक्तों को अपना अलग-अलग रूप दिखाती है। प्रातः काल के समय बाल्य सौम्य रूप, दोपहर में उग्र प्रचण्ड रूप और सांय के समय वृद्धा के रूप मे अवतरित होती है। मा धारी देवी के चौखठ पर जो भी सच्ची श्रद्धा से जाता है, मां उसके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करती है। सच्चे भक्ति भाव से मां की प्रतिमा के आगे ध्यान लगाने से शक्ति की किरणों का प्रकटीकरण होना शुरू हो जाता है। भक्त अपने आप में खो जाता है। शरीर में रोमांच उत्पन्न होने लगता है। इस तरह का बोध होता है कि जैसे हमारे आसपास अलौकिक किरणों का संचार हो रहा है। यह अनुभूति शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं की जा सकती है। माँ के मंदिर की एक अनूठी विशेषता यह है कि माँ के ऊपर छत्त नहीं रहती है। माँ खुले आसमान के नीचे रहती है। आज भी कोई भक्त मां धारी देवी की प्रतिमा को अपने घर में रखना चाहता है तो रख नहीं पाता है। उच्चाटन की स्थिति आ जाती है। मान्यता है कि जब भी इस क्षेत्र पर किसी तरह की संकट की स्थिति आती है तो मां आवाज लगाकर सचेत करती है। मंदिर के पास ही शिव का मंदिर भी है। जहां शिव शक्ति के रूप में पूजा की जाती है। माँ धारी देवी सदियों से उत्तराखंड की रक्षा करती है। इसका इतिहास बहुत पुराना है, 1807 से मां धारी देवी के स्थित होने के साक्ष्य मौजूद हैं। यहां के पुजारियों का मानना है कि मां धारी देवी का इतिहास इससे भी पुराना है। 1807 के साक्ष्य बाढ़ आने के कारण समाप्त हो गये थे। 1803-1814 तक गोरखा सेनापतियो के द्वारा मंदिर को दिया गया दान अभी भी प्रमाणिकता को स्वीकारते हैं। पुजारियों का मानना है कि द्वापर युग से ही मां काली की प्रतिमा यहाँ मौजूद थी। यहां मां काली के धड ‘धारी’ की पूजा होती है। शरीर की पूजा कालीमठ में होती है। मां धारी देवी जाग्रत और साक्षात रूप में अपने भक्तों पर कृपा बनाये रखती है। इस प्रकार साधक विशुद्ध भाव से मां धारी देवी की भक्ति करता है तो उसके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। मां धारी देवी के नाम का स्मरण करने मात्र से सभी प्रकार की बिघ्न बाधा दूर हो जाती है। जीवन पूर्ण रूप से उत्साहित बन जाता है।

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