उत्तराखंड वीरों की ही नहीं वीरांगनाओं की भी धरती है। उत्तराखंड की पावन धरती पर ऐसी वीरांगना ने जन्म लिया था जो दुनिया में सात युद्ध लड़ने वाली इकलौती वीरांगना बनी। जिसे ‘उत्तराखंड की रानी लक्ष्मीबाई’ के नाम से भी जाना जाता है। मात्र 20 साल की उम्र में सात साल तक युद्ध लड़ने वाली वीरांगना का नाम तीलू रौतेली है।
कौन थीं तीलू रौतेली ?
पौड़ी गढ़वाल में भूपसिंह रावत और मैणावती के घर तीलू का जन्म हुआ था। उनका पूरा नाम तिलोत्तमा देवी था। प्यार से तिलोत्तमा को सब तीलू बुलाया करते थे। तीलू के दो भाई थे भगतु और पथ्वा थे। तीलू के पिता गढ़वाल नरेश की सेना में थे और इन्हें गढ़वाल के राजा ने गुराड गांव की थोकदारी भी दी थी। उस जमाने में पहाड़ों में बाल विवाह खूब प्रचलन में था तो तीलू की भी महज 15 साल की उम्र में इड़ा गांव के भवानी सिंह नेगी के साथ शादी तय कर दी गई।
आठवीं शताब्दी के बाद कत्यूरी पतन की ओर बढ़ने लगे और कुमांऊ क्षेत्र में चंद वंश प्रभावशाली होता गया। अब गढ़वाल में पवार वंश स्थापित था और कुमाऊं में चंद वंश। कत्यूरी तिनकों की तरह इधर उधर बिखरने लगे थे जिस वजह से उन्होंने चारों तरफ लूटपाट करनी शुरू कर दी। जिस कारण खूब युद्ध भी होते थे।
युद्ध में तीलू के पिता, भाई और मंगेतर हो गए थे शहीद
एक बार कत्यूरी राजाओं ने अपनी सेना को ज्यादा मजबूत कर गढ़वाल पर हमला बोल दिया राजा मानशाह और कत्यूरों के बीच ये युद्ध खैरागढ़ में हुआ जिसमें गढ़वाल नरेश मानशाह ने खुद को कमजोर पाकर रणभूमि छोड़ दी और उन्होंने चौंदकोट गढ़ी में जाकर शरण ले ली। इस युद्ध में तीलू के पिता भूपसिंह रावत मारे गए फिर धिरे-धिरे कत्यूरीयों ने राज्य विस्तार करने के लिए गढ़वाल के बाकी इलाकों में भी आक्रमण करना शुरु कर दिया और इन युद्धों में भूप सिंह रावत के दोनों बेटे भगतु और पथ्वा भी मारे गए। इसके बाद कत्यूरीयों ने कांडा क्षेत्र में आक्रमण किया जिसमें तीलू का मंगेतर भी शहीद हो गया।
कांडा का युद्ध खत्म होने के कुछ समय बाद कांडा में मेला लगा। जिसमें हर साल तीलू और उसका परिवार जाया करता था। तीलू को हर साल की तरह इस साल भी कांडा कौथिग में जाने की खूब इच्छा हुई और वो अपनी मां से मेले में जाने की जिद्द करने लगी। तब तीलू की मां ने उसे मना कर दिया और याद दिलाया कि उसके साथ क्या हुआ है।
उसकी मां ने कहा कि इतनी जल्दी भूल गई क्या हुआ था तेरे पिता और भाइयों के साथ। अगर कहीं जाना ही है तो रणभूमि में जा और जाकर युद्ध कर। अपने परिवार की मौत का प्रतिशोध ले। मां की कही ये बातें तीलू को तीर की तरह चुभी और तीलू प्रतिशोध की अग्नि में जलने लगी।
पंद्रह साल की तीलू ने बनाई अपनी सेना
पंद्रह साल की तीलू ने अपनी दो सहेलियों बेल्लू और रक्की के साथ मिलकर एक नई सेना बनाई। जिसके सेनापति महाराष्ट्र के छत्रपति शिवाजी के सेना नायक श्री गुरु गौरीनाथ थे। जिस पंद्रह साल की बाला को मैदानों में खेलना-कूदना चाहिए था वो आज रणचंडी बन युद्ध के मैदान में थी।
तीलू ने सबसे पहले खैरगढ़ जीता फिर टकौलीगढ़ और ऐसे ही इस पंद्रह साल की वीर बाला ने सात सालों में 13 किलों में अपनी विजय पताका फहरा दी। तीलू के शौर्य वीरता सारे उत्तराखंड में कुछ इस तरह फैल गई थी कि दुश्मन तीलू का नाम सुनते ही थर-थर कांपने लगते थे। हर कोई तीलू को सामने से युद्ध में पराजित करने में असमर्थ था। तो वो तीलू को धोखे से मारने की योजना बनाने लगे और एक दिन तीलू के दुश्मनों को ये मौका मिल भी गया।
सात सालों में 13 किलों को जीती थीं तीलू
तीलू सात सालों बाद जब अपने घर वापस लौट रही थी तो रास्ते में पानी देखकर वो नदी के पास रुक गई। जब वो नदी में पानी पीने लगी तो पीछे से एक कत्यूरी सैनिक ने उस पर हमला कर दिया। इस हमले का सामना नहीं कर पाई और वीरगति को प्राप्त हो गई। आज भी तीलू रौतेली को उत्तराखंड में बड़े ही गर्व के साथ याद किया जाता है। तीलू की याद में उत्तराखंड में हर साल कांडा मेला भी लगता है। इसी के साथ उत्तराखंड की सरकार हर साल उल्लेखनीय कार्य करने वाली स्त्रियों को तीलू रौतेली पुरस्कार से सम्मानित भी करती है।