रामलीला का अत्यंत प्राचीन इतिहास है = महात्मा सत्यबोधानंद

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लालकुआं मानव उत्थान सेवा समिति के कुमाऊं प्रभारी युवा संत महात्मा सत्यबोधानंद जी ने कहा है कि वर्तमान समय में पूरे प्रदेश एवं देश में रामलीला मंचन की धूम मची हुई है लोग बढ़-चढ़कर इसमें हिस्सा लेकर प्रभु राम के आदर्शों को अपने जीवन में आत्मसात कर रहे हैं उन्होंने कहा कि रामलीला मंचन का अपना गौरवशाली अतीत है उस महान परंपरा को सनातन संस्कृति के प्रेमी बड़ी ही तन्मयता के साथ निभा रहे हैं जो स्वागत योग्य है महात्मा सत्यबोधानंद जी ने ने कहा कि रामलीला का इतिहास बेहद प्राचीन है उन्होंने कहा कि रामलीला की शुरुआत 15 वी शताब्दी में काशी से हुई जब बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रामचरितमानस की रचना की गई रामचरितमानस ग्रंथ के बाद से ही लोगों में रामलीला के प्रति रुझान बढ़ा और देखते ही देखते रामलीला का प्रचार प्रसार काशी के बाद संपूर्ण उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार मध्य प्रदेश गुजरात महाराष्ट्र राजस्थान के अलावा संपूर्ण भारत वर्ष में फैल गया उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का हिस्सा था यानी कि उत्तराखंड में भी रामलीला का इतिहास 15 वीं शताब्दी के आसपास का रहा है उन्होंने कहा कि रामलीला हमारी सनातन संस्कृति और सनातन धर्म का ध्वजवाहक मानी जाती हैं क्योंकि इससे हमें अपने गौरवशाली अतीत का ज्ञान होता है उन्होंने कहा कि रामलीला का उत्सव देश के अधिकांश राज्यों में शारदीय नवरात्र के 9 दिनों में मनाया जाता है और दसवें दिन विजयादशमी का पर्व दशहरा के रूप में मनाते हैं हालांकि भौगोलिक परिस्थितियों व अन्य कारणों के चलते कहीं कहीं इसके अतिरिक्त दिनों में अभी रामलीला मंचन किया जाता है उन्होंने कहा कि इसीलिए शारदीय नवरात्र को श्रेष्ठतम माना जाता है तथा इसमें शक्ति उपासना का महत्व समझाया गया है उन्होंने कहा कि त्रेता युग में भगवान राम ने भी राक्षस राज रावण का वध करने से पहले देवी की आराधना की थी तथा द्वापर युग में भी भगवान कृष्ण ने अर्जुन को विजयश्री का वरण करने के लिए देवी मां के पूजन करने का सुझाव दिया था और अर्जुन ने देवी मां की आराधना से उस युद्ध को जीत लिया था महात्मा सत्यबोधा नंद ने कहा कि धर्म एवं अध्यात्म के जरिए ही हम अपने वास्तविक जीवन के महत्व को समझ सकते हैं उन्होंने कहा कि आज की युवा पीढ़ी को अपने धर्म और संस्कृति के प्रति जागरूक किए जाने की आवश्यकता है और यह हम सभी का दायित्व होना चाहिए कि हम युवा पीढ़ी में इस प्रकार के संस्कार रोपित करें कि उन्हें अपनी महान परंपराओं का सदैव स्मरण बना रहे

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