श्रद्धा एवं आस्था का महत्वपूर्ण शिखर स्थित भगवान मूलनारायण मंदिर

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अत्युत्तम प्राकृतिक सौंदर्य का धनी, सभी के मन को मोहित कर देने वाली उत्तराखंड की देवभूमि के सबसे ऊंची चोटी शिखर में भगवान मूलनारायण वास करते हैं। इस रमणीक चोटी में बनाये गए मंदिर के पास पहुँचकर हर कोई भाव विभोर होकर विहंगम पर्वत मालाओं को,जब हिमाच्छादित नगाधिराज उत्तर की ओर निहारता है तब उसका मन गदगद हो उठता है। वह सदा के लिए इसी स्थान पर रहने की इच्छा करने लगता है।

संसार में अगर कहीं स्वर्ग की कल्पना की जाये तो वास्तव में देवताओं की यही भूमि स्वर्ग समान है।
भगवान मूलनारायण की चोटी में हर कोई एकाएक नहीं पहुँच पाता, सच्चे मन और श्रद्धा रखने वाले भक्तों को भगवान मूलनारायण स्वयं ही बुला लेते हैं।

मनोहारी रमणीक चोटी (शिखर) 1008 भगवान मूलनारायण की अवतार स्थली है। जनपद बागेश्वर के कपकोट विकास क्षेत्रान्तर्गत स्थित यह चोटी नैनीताल के “नैना पीक’ से भी ज्यादा ऊँचाई में स्थित है। “शिखर” को “नैना पीक” से भी दूरबीन के द्वारा स्पष्ट देखा जा सकता है। आस्था एवं श्रद्धा के इस प्रमुख स्थल शिखर में अब श्रद्धालुओं के साथ साथ पर्यटक भी आने लगे हैं। भगवान मूलनारायण के भव्य मन्दिर के दर्शन के लिए वर्षभर अधिकाधिक संख्या में लोग यहां पहुँचने लगे हैं। शिखर से हिमालय की सुप्रसिद्ध चोटियाँ सबसे अधिक निकट स्पष्ट एवं अति सुन्दर दिखाई देती हैं। हिमालय का सारा फैलाव जितना यहाँ से दिखाई देता है उतना शायद ही कही अन्यत्र से दिखाई देता हो,
पौराणिक कथा के अनुसार श्री 1008 भगवान मूलनारायण का शिखर में पवित्र मंदिर स्थल स्वंय देवताओं के द्वारा बनाया गया। यहां पौराणिक अत्यन्त आकर्षक एवं भव्य मन्दिर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस स्थान को पहले ऋकेश्वर कोट कहा जाता था,जहाँ सबसे पहले श्री पपना ऋषि के पुत्र मधना ऋषि रहा करते थे, मधना ऋषि की पत्नी मैनावती थी। वे निःसन्तान थे, उन्होंने कठोर तपस्या की, फलस्वरूप हिमालय क्षेत्र के सभी देवताओं के आशीर्वाद से ऋषि के आश्रम में भगवान् मूलनारायण का जन्म हुआ। कहा जाता है,मूलों में पैदा होने पर उनका नाम मूलनारायण रखा गया।
मूलनारायण का विवाह अप्रतिम अतीव सौन्दर्यशाली कन्या सारिंगा से होता है। कालान्तर में इसी ऋषि कुल में भगवान नौलिंग-बजैण दो पुत्र हुए। जिनके अवतार की लम्बी कथा है। जब कभी भी कोई संकट इस ऋषि कुल में आया भगवान मूल नारायण की बहिन नन्दा माई (हिंवाल नन्दा माई) रक्षा हेतु हिमालय क्षेत्र से पहुँच जाती थी।

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कालान्तर में भगवान् नौलिंग का अवतार नाकुरी क्षेत्र के सनगाड़ गाँव के निकट होता है तथा भगवान बँजैण का अवतार शिखर के पास ही भनार नामक स्थान में होता है। भगवान मूलनारायण शिखर पर्वत के ठीक निचले भाग भनार में एक तरफ बैंजैण देवता और दूसरी तरफ सनगाड़ में नौलिंग देवता का मंदिर स्थापित है।

कुमाऊँ में भगवान मूल नारायण एवं नौलिंग-बजैण का बड़ा महात्म्य है। लोगों की आस्था एवं भक्ति भावना सदैव इनसे जुड़ी है। कहा जाता है कि भगवान मूल नारायण की उपासना से इस क्षेत्र में सदैव वर्षा आवश्यकता अनुसार होती रहती है। आज भी जब उत्तरी भारत में मानसूनी वर्षा में कमी आई है, परन्तु जनपद बागेश्वर, पिथारागढ़ में कभी भी वर्षा का अभाव नहीं रहा है। भगवान मूल नारायण को वर्षा देवता के नाम से भी जाना जाता है। इसी प्रकार भगवान नौलिंग-बॅजैण का भा अत्यधिक महात्म्य है। इनके मंदिरों में भी लोग वर्षा न होने पर कथा भागवत करते हैं तो अवश्य वर्षा हो जाती है।

शिखर में लोग मूल नारायण मंदिर के निकट सुरम्य जंगल में पवित्र गुफा से जल लाकर मूल नारायण भगवान के मन्दिर में पूजा याचना करते हैं। जरूरत के अनुसार वर्षात की गुहार लगाते हैं। पूरे वर्ष भर यहाँ दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है। यहां गर्मियां में जाने का अलग ही आनंद है। खासकर आश्विन मास की नवरात्रियों में अष्टमी, नवमी को इन मन्दिरों में मेला होता है।

इसी दौरान बाद में त्रयोदशी को भनार में बहुत बड़ा मेला लगता है। यह मेला एक दिन तथा एक रात्री का लगता है। जिसमें लोक सांस्कृतिक झांकियां, झोड़ा, गीत, चाँचरी, छपेली आदि के साक्षात् आज भी दर्शन होते हैं। त्रयोदशी के दूसरे दिन शिखर में भी दर्शनार्थियों की बड़ी भीड़ रहती है।

शिखर में प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार महन्त श्री बद्रीनारायण दास जी की अथक तपस्या एवं अनवरत रात-दिन के अथक परिश्रम से किया गया। उनके ही अथक परिश्रम एवं समस्त क्षेत्र की दानशीलता, भक्ति भावना से सनगाड़ में नौलिंग मन्दिर औऱ भनार में बँजैण का मन्दिर बड़े ही सुन्दर व आकर्षक बने हैं। श्री महन्त जी ने कमेड़ी देवी के पास में उधांण के मन्दिर को भी भव्य रूप दिया। वहीं नाकुरी में धोबी नौला एवं पपोली जार्ती के निकट पहाड़ी के सुन्दर चोटी पर पपोली उधांण में भी सुन्दर मन्दिर बनवाये। महंत जी भनार मंदिर बनाने के बाद वही समाधि ले लिये।

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शिखर मंदिर से ठीक 1 किलोमीटर नीचे घने जंगल के बीच गुफा में पानी उपलब्ध है। यह पानी केवल पूजा के दिन ही मिलता है शेष दिन पानी कहा जाता है कि भूमि के अन्दर ही अन्दर सरस्वती नदी बन कर तीर्थराज प्रयाग में मिल जाता है। यह कहावत भी प्रचलित है कि इस गुफा में प्रवेश होकर इसके अन्दर बहती सरस्वती नदी के किनारे चल कर एक बाबा व कुत्ता (भैरव देवता) तीर्थ राज प्रयाग पहुँचे थे। यह बात आज अब सच होती प्रतीत होती है कि ‘प्यूटो प्रिंसेसा फिलीपींस अंडर ग्राउण्ड रिवर’ संसार की प्राकृतिक सात कुदरती अजूबे प्रतियोगिता में आ सकती है तो भारत में सरस्वती नदी भी अंडर ग्राउण्ड रिवर हो सकती है।

किंवदन्तियों एवं भौगोलिक परिवर्तन एवं भूगर्भ शास्त्र पर मिला जुला अन्वेषण किया जाय तो तथ्य सामने आ सकते हैं। शिखर की गुफा में लोग बीस मीटर तक अन्दर आते-जाते हैं। आगे आक्सीजन की कमी एवं अन्धकार में प्रकाश व्यवस्था न होने से कोई भी दर्शक आगे नहीं बढ़ पाया है। कहा जाता है एक बाबा प्रणायाम विधि से गुफा के अन्दर गया वह छः माह बाद बाहर आया तो अपने साथ केला नारंगी अनेक फल भी लाया। जब उससे पूछा गया तो बाबा ने कहा, ‘आगे जाकर मुझे धूप के दर्शन हुए। सूर्य का प्रकाश मिला और नदी के किनारे सुन्दर फलों के वृक्ष थे। मैं छ: माह तक फल ही खाता रहा। भारत वर्ष में विशेष रूप से पर्वतीय क्षेत्र हमारे उत्तराखण्ड में देव भूमि में इस प्रकार की किंवदन्तियाँ बहुतायत से सुनने को मिलती है।अधिक वर्षों के अन्तराल होने से भले ही हम सच न मानें परन्तु पर्व में ‘रमोला’ कथा में काला वजीर को मारने के लिए ‘बुढघंघ रमोला’ हौल तुमड़ी फैंकता था तो काला वजीर विष तुमड़ी फोड़ता था। तुमड़ी का अर्थ हैं बम या (रासायनिक पदार्थों का संग्रह) ऐसे ही भगवान मूल नारायण के पास वर्षा करने के लिए तुमडी होगी जिसको फोड़ने से शिखर में पानी की नदियाँ बहने लगी होगी। शिखर में जो भी भक्तगण वहां जाते हैं उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है। वहाँ आज भी घोड़े आदि जानवरों को ले जाना मना है। कहा जाता है कि सुनपति शौका भोटान्त राजा की बकरियाँ जो एक रात शिखर में पड़ाव करते समय जंगली जानवरों में बदल गये और करबोझ, (बकरियों द्वारा सामान ढोया जाने वाला) जिसमें सामान (नमक गुड) का बोझा बनाया जाता है। वह सब पत्थर में बदल गये। राजा को सपने में भगवान मूलनारायण ने कह दिया कि बकरियों को जस का तस दे दिया जायेगा लेकिन कर बकरियों का नमक भरा करबोझ नहीं मिलेगा। राजा की बेटी राजुला ने मूलनारायण भगवान से प्रार्थना की तब भेड़ बकरियों को तो ज्यों का त्यों कर दिया। लेकिन करबोझों का एक बड़ा सा पत्थर पहाड़ सा बन गया। बाद में उसी स्थान पर मूल नारायण भगवान का मन्दिर बनाया गया था। आज भी इस शक्तिपीठनुमे पत्थर से नमकयुक्त पानी निकलता हुआ दिखाई देता है।
शिखर मंदिर स्थल में पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान महामहिम राज्यपाल महाराष्ट्र भगत सिंह कोश्यारी ने कई सुविधायुक्त धर्मशाला बनवाये,साथ ही कई धर्मशालाओं का जीर्णोद्धार किया गया। यहां भक्तों के रहने की सारी सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं। मंदिर के दर्शन करने वाले लोग बागेश्वर-कांडा, धरमघर के रास्ते तथा बागेश्वर कपकोट, शामा के रास्ते यहां पहुँचते हैं। बागेश्वर से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर शिखर मंदिर है, धरमघर के रास्ते आने पर वाहन बास्तीगांव तक ले जाया जा सकता है। यहां से लगभग 8 किलोमीटर पैदल चलना होगा। शामा से शिखर जाने के लिए भनार तक ही गाड़ी जा सकती है। अगर आप भी सच्ची श्रद्धा रखते हैं तो एक बार यहां भगवान मूलनारायण के दर्शन करने अवश्य जायें।

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प्रस्तुति-सुरेश पाठक

(लेख के कुछ अंश चंद्र सिंह कार्की द्वारा वर्ष 2009 में नंदादेवी स्मारिका से साभार लिया)

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