वनाग्नि की 54 घटनाएं, ग्लेशियर्स के लिए ‘भस्मासुर’ बना ‘ब्लैक कार्बन’

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, देहरादून: उत्तराखंड में जंगलों की आग न केवल वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा रही है, बल्कि इससे निकल रहा धुआं वायुमंडल पर भी प्रतिकूल असर डाल रहा है. स्थिति ये है कि हिमालय में बर्फ की सफेद चादर पर कार्बन की परत नए खतरे का एहसास करा रही है. शायद इसीलिए वनाग्नि से होने वाले कार्बन उत्सर्जन पर वन महकमा अध्ययन कर विस्तृत जानकारी जुटाने में लगा हुआ है. हालांकि इस बीच पुराने कुछ अध्ययन जंगलों की आग के दौरान ब्लैक कार्बन के कई गुना बढ़ने के संकेत दे चुके हैं.
वनाग्नि ने बढ़ाई चुनौती: उत्तराखंड में वनाग्नि की घटनाएं फायर सीजन के दौरान हमेशा ही चर्चा में रहती हैं. जिस साल जंगलों में आग की घटनाएं कम होती हैं, तब वन विभाग समेत तमाम पर्यावरण प्रेमी राहत की सांस लेते हैं. लेकिन अधिकतर फायर सीजन मुसीबत भरे ही रहते हैं. मौजूदा फायर सीजन भी ऐसी ही चुनौती वाला होने जा रहा है. वैज्ञानिक पहले ही यह कह चुके हैं कि यह साल अब तक के सबसे गर्म सालों में से एक होने जा रहा है. जाहिर है कि इसका असर वन क्षेत्रों पर भी दिखाई देगा. जंगलों में आग को लेकर फायर सीजन 15 फरवरी से 15 जून तक माना जाता है. अप्रैल के पहले हफ्ते तक यह सीजन राहत भरा दिखने के बाद अब इसमें एकाएक चुनौतियां बढ़ने लगी हैं.
एक दिन में वनाग्नि की 54 घटनाएं: राज्य में दो दिन पहले ही 24 घंटे के दौरान 52 आग लगने की रिकॉर्ड घटनाएं दर्ज की गईं. गुरुवार को ये रिकॉर्ड भी टूट गया. गुरुवार को उत्तराखंड के वनों में आग लगने की 54 घटनाएं दर्ज हुई हैं, जो इस फायर सीजन में सबसे ज्यादा है. इसी का नतीजा है कि राजधानी समेत प्रदेश के तमाम मैदानी जिलों में अधिकतम तापमान कई जगह 36 डिग्री सेल्सियस तक भी पहुंचा है. यानी अब आने वाले दिन वन विभाग के लिए वनाग्नि को लेकर आसान नहीं हैं.
वनाग्नि से निकले ब्लैक कार्बन से ग्लेशियर्स को खतरा: उत्तराखंड हिमालयी राज्य होने के कारण यहां होने वाली तमाम घटनाएं सीधे तौर से हिमालय पर भी असर डालती हैं. वनाग्नि की घटनाएं भी इन्हीं में से एक है. जंगलों में लगने वाली आग उत्तराखंड के वन क्षेत्र को तो प्रभावित करती ही है, साथ ही यहां के वायुमंडल पर भी इसका असर पड़ता है. ये बात भी सामने आई है कि जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ने पर इसके आसपास के क्षेत्रों में तापमान में करीब दो डिग्री तक की बढ़ोत्तरी भी हो जाती है.
उधर वायु प्रदूषण के अलावा इससे निकलने वाले कार्बन पार्टिकल्स भी नई समस्या को जन्म देते हैं. दरअसल ब्लैक कार्बन वायुमंडल में फैलने के बाद हिमालयी ग्लेशियर्स को भी प्रभावित करते हैं. पिछले साल केंद्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय के भौतिक विभाग ने भी अपनी रिपोर्ट में कुछ इसी तरह की बात सामने रखी थी. इसमें माना गया था कि वायुमंडल में फायर सीजन के दौरान 12 से 13 गुना तक कार्बन की अधिकता पाई गई. जिसमें बायोमास बर्निंग यानी वनों में लगी आग की भागीदारी 55 प्रतिशत से अधिक थी.
ग्लेशियर्स पर काली परत बना रहा ब्लैक कार्बन: जंगलों में लगने वाली आग से निकलने वाले ब्लैक पार्टिकल्स वायुमंडल में कुछ समय तक मौजूद रहकर धीरे-धीरे नीचे आते हुए एक काली परत बना लेते हैं. जब यही पार्टिकल्स ग्लेशियर पर फैल जाते हैं तो पर्यावरण के लिए एक नई समस्या खड़ी हो जाती है. पर्यावरण पर काम करने वाले डॉक्टर धर्मेंद्र कुमार शाही कहते हैं कि इन कार्बन के कणों के ग्लेशियर पर मौजूद होने से ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार बढ़ जाती है. यह कार्बन गर्मी को अवशोषित करते हैं और तेज धूप के दौरान ग्लेशियर को गर्म करने का काम करते हैं. इससे ग्लेशियर तेजी से मेल्ट होना स्वाभाविक है. उधर ऐसी स्थिति में नदियों में पानी की मात्रा बढ़ने के कारण उनके किनारे भू कटाव की समस्या भी बढ़ सकती है. कुल मिलाकर यह स्थिति पूरे पर्यावरण के चक्र को बदल देती है और हिमालय का इकोसिस्टम भी इससे प्रभावित होता है.
वन विभाग कर रहा अध्ययन: वनों की आग के कारण कार्बन उत्सर्जन की स्थिति क्या होती है और इसका कुल मिलाकर कितना नुकसान होता है, इस पर अभी कोई विस्तृत रिपोर्ट सामने नहीं आई है. हालांकि कुछ क्षेत्र विशेष में हुए अध्ययन की रिपोर्ट कार्बन उत्सर्जन को लेकर चौंकाने वाली रही है. ऐसे में उत्तराखंड वन विभाग ब्लैक कार्बन की स्थिति और इससे पर्यावरण को हो रहे नुकसान के लिए एक विस्तृत अध्ययन को लंबे समय से कर रहा है. बताया गया है कि इसमें वनाग्नि से हो रहे पर्यावरण को नुकसान का भी विस्तृत आकलन किया जा रहा है. वन विभाग की मानें तो फिलहाल इसको लेकर अध्ययन किया जा रहा है. वन क्षेत्र में जो आग लगती है, उससे निकलने वाला कार्बन पर्यावरण को दूषित भी कर रहा है. ऐसे में स्थानीय लोगों को भी इसके लिए जागरूक किया जा रहा है.
जंगलों में नमी बढ़ाने का प्रयास: इसके साथ ही वन विभाग भी कुछ ऐसी योजनाओं को आगे बढ़ा रहा है, जिससे कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सके. जंगलों में सूखे पत्तों को जलाने के बजाय उन्हें इकट्ठा कर खाद के रूप में परिवर्तित करने जैसे कामों को आगे बढ़ाया जा रहा है. इसके अलावा चीड़, पिरूल के पत्तों के अन्य उपयोग को लेकर भी विभाग काम कर रहा है. इसके अलावा जो क्षेत्र चीड़ या पिरूल बाहुल्य हैं, ऐसे जंगलों में तकनीक के माध्यम से नमी को बढ़ाने के भी प्रयास हो रहे हैं. इसके लिए लॉन्ग टर्म स्कीम तैयार की जा रही है, ताकि पर्यावरण पर पड़ने वाले इसके कुप्रभाव को रोका जा सके.
6 महीने में 581 हेक्टेयर जंगल जले: पर्यावरणविदों की भी इस बात को लेकर चिंता है कि राज्य में हर साल जंगल जल रहे हैं और इसका पर्यावरण पर कुप्रभाव पड़ रहा है. उत्तराखंड में 6 महीने से भी कम वक्त में 581 हेक्टेयर जंगल जले हैं, जिसका वन विभाग ने आर्थिक रूप से हानि के रूप में 12 लाख 65,000 का नुकसान माना है.
उत्तराखंड के हर जिले में धधक रहे जंगल: इस मामले में हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भी जंगलों के जलने की घटनाए चिंता बढ़ाती रही हैं, लेकिन देश में सबसे ज्यादा जंगल जलने की घटनाएं उत्तराखंड या हिमाचल में ही रिकॉर्ड की जा रही हैं. उधर केवल उत्तराखंड को देखें तो गढ़वाल और कुमाऊं मंडल दोनों ही जगह पर आग की घटनाएं रिकॉर्ड हो रही हैं. इसमें देहरादून के मैदानी क्षेत्र से लेकर उत्तरकाशी, पौड़ी और टिहरी के अलावा बागेश्वर, पिथौरागढ़ और नैनीताल जिलों में भी बड़ी मात्रा में जंगल जले हैं.

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