
आज 14 मार्च 2025 है। आज फूलदेई का त्योहार है। बच्चों के लिए यह त्योहार बेहद खास होता है। “फुलदेई पर्व” उत्तराखंड में एक लोकपर्व है। उत्तराखंड में इस त्यौहार की काफी मान्यता है। इस त्यौहार को फूल सक्रांति भी कहते हैं, जिसका सीधा संबंध प्रकृति से है।
उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्रों में चैत्र संक्रांति से फूलदेई का त्यौहार मनाने की परंपरा है। कुमाऊं और गढ़वाल के ज्यादातर इलाकों में आठ दिनों तक यह त्यौहार मनाया जाता है। वहीं, टिहरी के कुछ इलाकों में एक माह तक भी यह पर्व मनाने की परंपरा है। फूलदेई बच्चों का त्यौहार है।बच्चे इस त्यौहार को बड़े ही उत्साह से मनाते हैं। इस त्यौहार के माध्यम से बच्चों का प्रकृति और समाज के साथ जुड़ाव बढ़ता है। यह हमारी समृद्ध संस्कृति का पर्व है। उत्तराखंड में फूलदेई का त्योहार मनाया जाएगा। मीन संक्रांति के दिन घरों की देहरी / दहलीज पर बच्चे गाना गाते हुए फूल डालते हैं। कहीं-कहीं फूलों के साथ बच्चे चावल भी डालते हैं। इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है।
बच्चे घर घर जाकर पारंपरिक गीत गाते हुए देहलियों में डालते है
फूलदेई से एक दिन पहले शाम को बच्चे रिंगाल की टोकरी लेकर फ्यूंली, बुरांस, बासिंग, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं। अगले दिन सुबह नहाकर वह घर-घर जाकर लोगों की सुख-समृद्धि के पारंपरिक गीत गाते हुए देहलियों में फूल बिखेरते हैं। इस अवसर पर कुमाऊं के कुछ स्थानों में देहलियोंं में ऐपण (पारंपरिक चित्र कला जो जमीन और दीवार पर बनाई जाती है।) बनाने की परंपरा भी है।
गीत की पंक्तियों के साथ मनाया जाता है यह त्यौहार
फूलेदई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार, पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार…. (आपकी देहली (दहलीज) फूलों से भरी और सबकी रक्षा करने वाली (क्षमाशील) हो, घर व समय सफल रहे, भंडार भरे रहें, इस देहरी को बार-बार नमस्कार, द्वार खूब फूले-फले…) गीत की पंक्तियों के साथ उत्तराखंड में फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है।
कुमाऊं और गढ़वाल का अनूठा त्यौहार है फूलदेई
पहाड़ में वसंत के आगमन पर फूलदेई मनाने की परंपरा है। यह त्यौहार गढ़वाल और कुमाऊं के अधिकांश क्षेत्रों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। बच्चों से जुड़ा त्यौहार होने के चलते इसे खूब पसंद भी किया जाता है।
रोम से हुई वसंत पूजन की शुरुआत
वसंत के पूजन की परंपरा रोम से शुरू हुई थी। रोम की पौराणिक कथाओं के अनुसार फूलों की देवी का नाम ‘फ्लोरा’ था। यह शब्द लैटिन भाषा के फ्लोरिस (फूल) से लिया गया है। वसंत के आगमन पर वहां छह दिन का फ्लोरिया महोत्सव मनाया जाता है। वहां पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी यह पर्व मनाया जाता है। रोम में फ्लोरा को एक देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, जिसके हाथों में फूलों की टोकरी है। देवी के सिर पर फूलों और पत्तों का ताज होता है।
जानें इससे जुड़ी लोक कथा
मान्यता है कि एक वनकन्या थी, जिसका नाम था फ्यूंली। फ्यूली जंगल में रहती थी। जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसका परिवार भी थे और दोस्त भी। फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी, खुशहाली। एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ों को छोड़कर उसके साथ महल चली गई। फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे। उधर महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था…और एक दिन फ्यूंली मर गई। मरते-मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की, कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं दफना दे। फ्यूंली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था। जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई।